अथातो भक्ति जिज्ञासा – Athato Bhakti Jigyasa, Vol.1

375.00

Category: Tag:

Description

भक्ति का मार्ग भाव का मार्ग है, रस का मार्ग है, गीतों का मार्ग है। ॠषिवर शांडिल्य के भक्ति-सूत्रों पर बोलते हुए ओशो ने गीतों और शेरो-शायरी के प्रयोग से उन्हें अत्यंत सरस बना दिया है। भक्ति के सहज सरस मार्ग की कुंजी देते हुए ओशो कहते हैं : ‘शांडिल्य को खूब हृदयपूर्वक समझना। शांडिल्य बड़ा स्वाभाविक सहज-योग प्रस्तावित कर रहे हैं। जो सहज है, वही सत्य है। जो असहज हो, उससे सावधान रहना। असहज में उलझे, तो जटिलताएं पैदा कर लोगे। सहज से चले तो बिना अड़चन के पहुंच जाओगे। ‘इन अपूर्व सूत्रों पर खूब ध्यान करना। इनके रस में डूबना। एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि तुम पूरे जीवन से भी चुकाना चाहो तो उसकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती।’

अनुक्रम
#1: भक्ति जीवन का परम स्वीकार है
#2: जीवन क्या है?
#3: भक्ति परमात्मा की किरण है
#4: प्रीति–स्नेह–प्रेम–श्रद्धा–भक्ति
#5: भक्ति याने जीने का प्रारंभ
#6: भक्त के मिटने में भगवान का उदय
#7: स्वानुभव ही श्रद्धा है
#8: प्रीति की पराकाष्ठा भक्ति है
#9: अनुराग है तुम्हारा अस्तित्व
#10: संन्यास शिष्यत्व की पराकाष्ठा है
#11: भक्ति आत्यंतिक क्रांति है
#12: भक्ति एकमात्र धर्म
#13: स्वभाव यानी परमात्मा
#14: परमात्मा परमनिर्धारणा का नाम
#15: भक्ति अंतिम सिद्धि है
#16: धर्म आमूल बगावत है
#17: भक्ति अति स्वाभाविक है
#18: विरह क्या है?
#19: सब हो रहा है
#20: अद्वैत प्रीति की परमदशा है

उद्धरण: अथातो भ‍‍क्‍ति जिज्ञासा

यह सुबह, यह वृक्षों में शांति, पक्षियों की चहचहाहट…या कि हवाओं का वृक्षों से गुजरना, पहाड़ों का सन्नाटा…या कि नदियों का पहाड़ों से उतरना…या सागरों में लहरों की हलचल, नाद…या आकाश में बादलों की गड़गड़ाहट–यह सभी ओंकार है।

ओंकार का अर्थ है: सार-ध्वनि; समस्त ध्वनियों का सार। ओंकार कोई मंत्र नहीं, सभी छंदों में छिपी हुई आत्मा का नाम है। जहां भी गीत है, वहां ओंकार है। जहां भी वाणी है, वहां ओंकार है। जहां भी ध्वनि है, वहां ओंकार है।

और यह सारा जगत ध्वनियों से भरा है। इस जगत की उत्पत्ति ध्वनि में है। इस जगत का जीवन ध्वनि में है; और इस जगत का विसर्जन भी ध्वनि में है। ओम से सब पैदा हुआ, ओम में सब जीता, ओम में सब एक दिन लीन हो जाता है। जो प्रारंभ है, वही अंत है। और जो प्रारंभ है और अंत है, वही मध्य भी है। मध्य अन्यथा कैसे होगा! इंजील कहती है: प्रारंभ में ईश्वर था, और ईश्वर शब्द के साथ था, और ईश्वर शब्द था, और फिर उसी शब्द से सब निष्पन्न हुआ।

वह ओंकार की ही चर्चा है। मैं बोलूं तो ओंकार है। तुम सुनो तो ओंकार है। हम मौन बैठें तो ओंकार है। जहां लयबद्धता है, वहीं ओंकार है। सन्नाटे में भी–स्मरण रखना–जहां कोई नाद नहीं पैदा होता, वहां भी छुपा हुआ नाद है–मौन का संगीत! शून्य का संगीत! जब तुम चुप हो, तब भी तो एक गीत झर-झर बहता है। जब वाणी निर्मित नहीं होती, तब भी तो सूक्ष्म में छंद बंधता है। अप्रकट है, अव्यक्त है; पर है तो सही। तो शून्य में भी और शब्द में भी ओंकार निमज्जित है।

ओंकार ऐसा है जैसे सागर। हम ऐसे हैं जैसे सागर की मछली।

इस ओंकार को समझना। इस ओंकार को ठीक से समझा नहीं गया है। लोग तो समझे कि एक मंत्र है, दोहरा लिया। यह दोहराने की बात नहीं है। यह तो तुम्हारे भीतर जब छंदोबद्धता पैदा हो, तभी तुम समझोगे ओंकार क्या है। हिंदू होने से नहीं समझोगे। वेदपाठी होने से नहीं समझोगे। पूजा का थाल सजा कर ओंकार की रटन करने से नहीं समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में उत्सव होगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे जीवन में गान फूटेगा, तब समझोगे। जब तुम्हारे भीतर झरने बहेंगे, तब समझोगे। ओम से शुरुआत अदभुत है।

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “अथातो भक्ति जिज्ञासा – Athato Bhakti Jigyasa, Vol.1”

Your email address will not be published. Required fields are marked *