कन थोरे कांकर घने – Kan Thore Kankar Ghane (Hindi Edition)

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Description

बाबा मलूकदास–यह नाम ही मेरी हृदय-वीणा को झंकृत कर जाता है। जैसे अचानक वसंत आ जाए! जैसे हजारों फूल अचानक झर जाएं! नानक से मैं प्रभावित हूं; कबीर से चकित हूं; बाबा मलूकदास से मस्त। ऐसे शराब में डूबे हुए वचन किसी और दूसरे संत के नहीं हैं। नानक में धर्म का सारसूत्र है, पर रूखा-सूखा। कबीर में अधर्म को चुनौती है–बड़ी क्रांतिकारी, बड़ी विद्रोही। मलूक में धर्म की मस्ती है; धर्म का परमहंस रूप; धर्म को जिसने पीया है, वह कैसा होगा। न तो धर्म के सारतत्व को कहने की बहुत चिंता है, न अधर्म से लड़ने का कोई आग्रह है। धर्म की शराब जिसने पी है, उसके जीवन में कैसी मस्ती की तरंग होगी, उस तरंग से कैसे गीत फूट पड़ेंगे, उस तरंग से कैसे फूल झरेंगे, वैसे सरल अलमस्त फकीर का दिग्दर्शन होगा मलूक में। ओशो

उद्धरण: कन थोरे कांकर घने , मिटने की कला: प्रेम

बाबा मलूकदास एक महाकवि हैं। मात्र कवि ही नहीं–एक द्रष्टा, एक ऋषि। कवि तो मात्र छंद, मात्रा, भाषा बिठाना जानता है। कवि तो मात्र कविता का बाह्य रूप जानता है। ऋषि जानता है काव्य का अंतस्तल, काव्य की अंतरात्मा। साधारण कविता तो बस देह मात्र है, जिसमें प्राणों का आवास नहीं। भक्तों की कविता सप्राण है; श्वास लेती हुई कविता है। इसलिए ऐसा भी हो सकता है कि भक्तों को कोई कवि ही न माने, क्योंकि न उन्हें फिकर है भाषा की, न छंद-मात्रा की, न व्याकरण की। गौण पर उनकी दृष्टि नहीं है। जब भीतर प्राणों का आविर्भाव हुआ हो तो कौन चिंता करता है अलंकरण की!… तो जब मैं मलूकदास को महाकवि कह रहा हूं, तो इस अर्थ में कह रहा हूं कि वहां शायद काव्य का ऊपरी आयोजन न भी हो, लेकिन भीतर अनाहत का नाद गूंजा है; भीतर से झरना बहा है। फिर झरने कोई रेल की पटरियों पर थोड़े ही बहते हैं! जैसी मौज आती है, वैसे बहते हैं। झरने कोई रेलगाड़ियां थोड़े ही हैं। झरने मुक्त बहते हैं। तो ऋषि का छंद तो मुक्त छंद है। उसकी खूबी शब्द में कम, उसके भीतर छिपे निःशब्द में ज्यादा है। खोल में कम, भीतर जो छिपा है, उसमें है। गुदड़ी मत देखना; भीतर हीरा छिपा है, उसे खोजना। तो अक्सर महाकवि तो कवियों में भी नहीं गिने जाते। और जिनको कवि कहना भी उचित नहीं, वे भी महाकवि माने जाते हैं।

दुनिया बड़ी अजीब है; यहां तुकबंद कवि हो जाते हैं, महाकवि हो जाते हैं। और आत्मा के छंद को गाने वालों की कोई चिंता ही नहीं करता।… मलूकदास की कविता में उनके भीतर के संगीत की धुन है। मलूकदास कविता करने को कविता नहीं किए हैं। कविता बही है; ऐसे ही जैसे जब आषाढ़ में मेघ घिर जाते हैं, तो मोर नाचता है। यह मोर का नाचना किसी के दिखावे के लिए नहीं है। यह मोर सरकस का मोर नहीं है। यह मोर किसी की मांग पर नहीं नाचता है। यह मोर किसी नाटक का हिस्सा नहीं है। जब मेघ घिर जाते, आषाढ़ के मेघ जब इसे पुकारते आकाश से, तब इसके पंख खुल जाते हैं, तब यह मदमस्त होकर नाचता है। आकाश से वर्षा होती; नदी-नाले भर जाते; आपूर हो उठते; बाढ़ आ जाती; ऐसी ही बाढ़ आती है हृदय में जब परमात्मा का साक्षात्कार होता है। बाढ़ का अर्थ–इतना आ जाता है हृदय में कि समाए नहीं सम्हलता; ऊपर से बहना शुरू हो जाता है। तट-बंध टूट जाते हैं; कूल-किनारे छूट जाते हैं। बाढ़ की नदी देखी है न; भक्त वैसी ही बाढ़ की नदी है; संत वैसी ही बाढ़ की नदी है। फिर बाढ़ की नदी करती क्या है–इतनी भाग-दौड़, इतना शोर शराबा–जाकर सब सागर को समेट कर अर्पित कर देती है। ये मलूकदास के पद बाढ़ में उठे हुए पद हैं; ये बाढ़ की तरंगें हैं; और ये सब परमात्मा के चरणों में समर्पित हैं। ये सब जाकर सागर में उलीच दिए गए हैं। संतों को मैं महाकवि कहता हूं, चाहे उन्होंने कविता न भी की हो। यद्यपि ऐसा कम ही हुआ है, जब संतों ने कविता न की हो।

यह आकस्मिक नहीं हो सकता। सब संतों ने–कम से कम भक्ति-मार्ग के सब संतों ने गाया है। ध्यान मार्ग के संतों ने कविता न भी की हो, क्योंकि उनसे काव्य का कोई सीधा संबंध नहीं है। लेकिन उनकी वाणी में भी गौर करोगे, तो कविता का धीमा नाद सुनाई पड़ेगा। बुद्ध ने कविता नहीं की; लेकिन जो गौर से खोजेगा, उसे बुद्ध के वचनों में काव्य मिलेगा। काव्य से वंचित कैसे हो सकते हैं बुद्ध के वचन! चाहे उन्होंने पद्य की भाषा न बोली हो, गद्य ही बोला हो, लेकिन गद्य में भी छिपा हुआ पद्य होगा। पर भक्तों के तो सारे वचन गाए गए हैं। भक्ति तो प्रेम है; प्रेम तो गीत है, प्रेम तो नाच है। भक्त नाचे हैं; भक्त गुनगुनाए हैं। जब भगवान हृदय में उतरे, तो कैसे रुकोगे बिना गुनगुनाए? और करोगे क्या? और करते बनेगा भी क्या? विराट जब तुम्हारे आंगन में आ जाएगा, तो नाचोगे नहीं? नाचोगे ही। यह नैसर्गिक है; स्वाभाविक है। रोओगे नहीं? आनंद के आंसू न बहाओगे? आंसू बहेंगे ही; रोके न रुकेंगे।

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