ज्योति से ज्योति जले – Jyoti Se Jyoti Jale (Hindi Edition)

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‘सुंदरदास उन थोड़े से कलाकारों में एक हैं जिन्होंने इस ब्रह्म को जाना। फिर ब्रह्म को जान लेना एक बात है, ब्रह्म को जनाना और बात है। सभी जानने वाले जना नहीं पाते। करोड़ों में कोई एकाध जानता है और सैकड़ों जानने वालो में कोई एक जना पाता है।

#1: मौन सेतु है सत्संग का
#2: गंता ही गंतव्य है
#3: साधु आठौ जाम बैठो
#4: त्याग अर्थात अपना ही स्वाद
#5: है दिल में दिलदार
#6: मनुष्य-जाति को संदेश
#7: मारग जोवै बिरहनी
#8: प्रेम अर्थात धर्म
#9: दीया राखै जनत सा
#10: संन्यास यानी अभय
#11: मन ही बड़ौ कपूत है
#12: प्रेम जादू है
#13: संत समागम कीजिए
#14: एकांत मधुर है
#15: हारो और पुकारो
#16: आत्मा ही परमात्मा है
#17: मिटी न दरस पियास
#18: क्रांति मेरा नारा है
#19: हमारे गुरु दीनी एक जरी
#20: रीते घर पाहुन पग धारे
#21: तुमही ठाकुर तुमही दासा

संत सुंदरदास के पदों पर ओशो के इक्कीस प्रवचन। 11 प्रवचनों में ओशो पदों पर बोलते हैं और 10 प्रवचन में साधकों प्रश्नों के जवाब देते हैं।

कलैव ब्रह्म!–कला ही ब्रह्म है। ऐसा उपनिषद के ऋषियों का वचन है। पर कौन सी कला? उपनिषद के ऋषि मूर्तिकला की बात तो न करेंगे, न ही चित्रकला की, न नाट्यकला की। किस कला को ब्रह्म कहा होगा? एक कला है जो पत्थर में छिपी मूर्ति को निखारती, उघाड़ती है। एक कला है जो शब्द में पड़े छंद को मुक्त करती है। एक कला है जो वीणा में सोए संगीत को जगाती है। और एक कला है जो मनुष्य में सोए ब्रह्म को उठाती है। उस कला की ही बात है। मनुष्य की मिट्टी में अमृत छिपा है। मनुष्य की कीचड़ में कमल छिपा है। उस कला को जिसने सीखा, उसने धर्म जाना। हिंदू या मुसलमान या जैन होने से कोई धार्मिक नहीं होता। मंदिर-मस्जिदों में पूजा और प्रार्थना करने से कोई धार्मिक नहीं होता। जब तक अपनी मृण्मय देह में चिन्मय का आविष्कार न हो जाए, तब तक कोई धार्मिक नहीं होता। जब तक स्वयं की देह मंदिर न बन जाए उस देवता का; जब तक अपने ही भीतर खोज न लिया जाए खजाना और साम्राज्य–तब तक कोई धार्मिक नहीं होता। धर्म सबसे बड़ी कला है, क्योंकि इस जगत में सबसे बड़ी खोज ब्रह्म की खोज है। जो ब्रह्म को खोज लेते हैं, वे ही जीते हैं। शेष सब भ्रम में होते हैं–जीने के भ्रम में। दौड़-धूप बहुत है, आपा-धापी बहुत है, लेकिन जीवन कहां है? जीवन उन थोड़े से लोगों को ही मिलता है, जीवन का रस उन थोड़े ही लोगों में बहता है–जो खोज लेते हैं उसे, जो भीतर छिपा है; जो जान लेते हैं कि मैं कौन हूं। उपनिषद परिभाषा भी करते हैं कला की: ‘कलयति निर्माययति स्वरूपं इति कला।’ जो स्वरूप का निर्माण करती है वह कला है। तब फिर ठीक ही कहा है: कलैव ब्रह्म। तो कला ब्रह्म है। तो कला धर्म है। तो कला जीवन का सार-सूत्र है। सुंदरदास उन थोड़े से कलाकारों में एक हैं जिन्होंने इस ब्रह्म को जाना। फिर ब्रह्म को जान लेना एक बात है, ब्रह्म को जनाना और बात है। सभी जानने वाले जना नहीं पाते। करोड़ों में कोई एकाध जानता है और सैकड़ों जानने वालों में कोई एक जना पाता है। सुंदरदास उन थोड़े से ज्ञानियों में एक हैं, जिन्होंने निःशब्द को शब्द में उतारा; जिन्होंने अपरिभाष्य की परिभाषा की; जिन्होंने अगोचर को गोचर बनाया, अरूप को रूप दिया। सुंदरदास थोड़े से सदगुरुओं में एक हैं। उनके एक-एक शब्द को साधारण शब्द मत समझना। उनके एक-एक शब्द में अंगारे छिपे हैं। और जरा सी चिनगारी तुम्हारे जीवन में पड़ जाए तो तुम भी भभक उठ सकते हो परमात्मा से। तो तुम्हारे भीतर भी विराट का आविर्भाव हो सकता है। पड़ा तो है ही विराट, कोई जगाने वाली चिनगारी चाहिए। —ओशो

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