दीपक बारा नाम का – Deepak Bara Nam Ka (Hindi Edition)

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दीपक बारा नाम का!’ इसे यूं पढ़ना: शून्य का दीया जलाया। शब्दातीत, शास्त्रातीत, अनिर्वचनीय, समाधि का दीया जलाया। न वहां कुछ कहने को है, न कुछ समझने को है, न कुछ सुनने को है; वहां गहन मौन है, समग्र मौन है। जरा भी चहल-पहल नहीं। जरा भी शोरगुल नहीं।…

अनुक्रम
#1: महल भया उजियार
#2: यह मयकदा है
#3: स्वयं का सत्य ही मुक्त करता है
#4: संन्यास बोध की एक अवस्था है
#5: अल्लाह बेनियाज है
#6: गुहाग्रंथिभ्यो विमुक्तोमृतो भवति
#7: धर्म है मुक्ति का आरोहण
#8: दर्शन तो एक आत्मिक संस्पर्श है
#9: सतां हि सत्य
#10: जैसा हूं, परम आनंदित हूं

मनुष्य जन्मता तो है, लेकिन जन्म के साथ जीवन नहीं मिलता। और जो जन्म को ही जीवन समझ लेते हैं, वे जीवन से चूक जाते हैं। जन्म केवल अवसर है जीवन को पाने का। बीज है, फूल नहीं। संभावना है, सत्य नहीं। एक अवसर है, चाहो तो जीवन मिल सकता है; न चाहो, तो खो जाएगा। प्रतिपल खोता ही है। जन्म एक पहलू, मृत्यु दूसरा पहलू। जीवन इन दोनों के पार है। जिसने जीवन को जाना, उसने यह भी जाना कि न तो कोई जन्म है और न कोई मृत्यु है। साधारणतः लोग सोचते हैं, जीवन जन्म और मृत्यु के बीच जो है उसका नाम है। नहीं! जीवन उसका नाम है जिसके मध्य में जन्म और मृत्यु बहुत बार घट चुके हैं, बहुत बार घटते रहेंगे। तब तक घटते रहेंगे जब तक तुम जीवन को पहचान न लो। जिस दिन पहचाना, जिस दिन प्रकाश हुआ, जिस दिन भीतर का दीया जला, जिस दिन अपने से मुलाकात हुई, फिर उसके बाद न कोई लौटना है, न कहीं आना, न कहीं जाना। फिर विराट से सम्मिलन है। बीज सुबह की धूप में भी पड़ा हो तो भी अंधकार में होता है। क्योंकि बीज तो बंद होता है। उसके भीतर तो सूरज की किरणें पहुंचती नहीं। हां, बीज में फूल छिपे हैं–अनंत फूल छिपे हैं। काश, बीज के फूल प्रकट हो जाएं तो फिर सूरज की रोशनी से संबंध जुड़ जाता है। फिर फूल नाचते हैं धूप में, हवाओं में, वर्षा में; गाते हैं पक्षियों के साथ, गुफ्तगू करते हैं सितारों से। साधारण मनुष्य बीज की तरह है, बंद; इसलिए अंधेरा है भीतर। वह महल तुम हो। कहीं और मत तलाशने निकल जाना। जो भी पाना है, भीतर पाना है। जो भी है जानने योग्य, पाने योग्य, वह तुम्हारे भीतर छिपा पड़ा है। उसे तलाशना है। वह उपलब्धि नहीं है, आविष्कार है। तुम्हारे भीतर कुछ पर्तें हैं, जो टूट जाएं तो जलधार बह निकले। जैसे दीये को किसी ने ढांक दिया हो, ऐसे तुम ढंके हो। उपनिषद के ऋषि प्रार्थना करते हैं: हे प्रभु, इस स्वर्णपात्र को उघाड़ दे! यह प्रार्थना महत्वपूर्ण है। साधारण पात्र भी नहीं है जिसने तुम्हें ढांका है। यह स्वर्णपात्र है। और यही खतरा है। मिट्टी का होता, तो तुम लात मार देते। मगर यह सोने का है, इसे पकड़ रखने की आकांक्षा होती है। कैदी को अगर सोने की जंजीरें पहना दो, तो वह खुद ही नहीं चाहेगा कि जंजीरें टूटें। वह तो समझेगा, आभूषण हैं। और अगर हीरे-जवाहरात भी जड़ दो जंजीरों पर, तो फिर तो कहना क्या! फिर तो जो उसकी जंजीरें तोड़ने आएगा, उसका दुश्मन हो जाएगा।—ओशो

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