सम्बोधि के क्षण

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जीवन-ऊर्जा रूपांतरण के विज्ञान पर ओशो द्वारा ‍दिए गए पांच प्रवचनों का संकलन।

जितना बुद्धिमान व्यक्ति होगा, उतना स्वयं के ढंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोपे गए नियम प्रतिक्रिया, रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे। तो दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी, उतनी ऊपर से थोपे गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। अब दुनिया बुद्धिमान होती चली गई है, बगावत शुरू हो गई है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य का बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है। स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि मैं अपने व्यक्तित्व के तंत्र को निर्णय करने की स्वयं व्यवस्था चाहता हूं, अपनी व्यवस्था चाहता हूं। तो पुरानी सारी अनुशासन की परंपरा एकदम आकर गड्ढे में खड़ी हो गई है। वह टूटेगी ही। उसे आगे नहीं चलाया जा सकता। उसे चलाने की कोशिश महंगी पड़ेगी, क्योंकि जितना उसे हम चलाना चाहेंगे, उतनी ही तीव्रता से नई पीढ़ियां उसे तोड़ने को आतुर हो जाएंगी। और उनको तोड़ने की आतुरता बिलकुल स्वभाविक, उचित है। गलत भी नहीं है। तो अब हमें एक नये अनुशासन की दिशा में सोचना जरूरी हो गया है। ऐसे अनुशासन की दिशा में सोचना जरूरी हो गया है, जो व्यक्ति के विवेक के विकास से सहज फलित होता हो। एक तो यह नियम है कि दरवाजे से निकलना चाहिए, दीवाल से नहीं निकलना चाहिए। यह नियम है। जिस व्यक्ति को यह नियम दिया गया है, उसके विवेक में कहीं भी यह समझ में नहीं आया है कि दीवाल से निकलना, सिर फोड़ लेना है। और दरवाजे से निकलने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। उसकी समझ में यह बात नहीं आई। उसके विवेक में यह बात आ जाए तो हमें कहना नहीं पड़ेगा कि दरवाजे से निकलो। वह दरवाजे से निकलेगा। और यह निकलने की जो व्यवस्था है उसके भीतर से आएगी, बाहर से नहीं। अब तक हम शुभ क्या है, अशुभ क्या है, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, वह तय कर दिए थे, वह हमने सुनिश्र्चित कर दिया था। उसे मान कर चलना ही सज्जन व्यक्ति का कर्तव्य था। अब यह नहीं हो सकेगा, नहीं हो रहा है, नहीं होना चाहिए। मैं जो कह रहा हूं, वह यह कह रहा हूं कि हम एक-एक व्यक्ति के भीतर उतनी चेतना, उतना विचार, उतना विवेक जगा सकते हैं कि उसे यह दिखाई पड़े कि क्या करना ठीक है, और क्या करना गलत है। निश्र्चित ही अगर विवेक जगेगा, तो हम करीब-करीब हमारा विवेक एक से उत्तर देगा। लेकिन उन उत्तरों का एक सा होना बाहर से निर्धारित नहीं होगा, भीतर से निर्धारित होगा। प्रत्येक व्यक्ति के विवेक को जगाने की कोशिश की जानी चाहिए और विवेक से जो अनुशासन आए, वह शुभ है। फिर सबसे बड़ा फायदा यह है कि विवेक से आए हुए अनुशासन में व्यक्ति को कभी परतंत्रता नहीं मालूम पड़ती है। —ओशो

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