प्रेम-रंग-रस ओढ़ चदरिया – Prem Rang Ras Odh Chadariya (Hindi Edition)

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Description

कठिनाई चाहे प्रेम के पंथ की हो या ध्यान के मार्ग की, पंद्रह प्रवचनों की इस प्रश्नोत्तर प्रवचनमाला में ओशो ने सभी प्रश्नों के अत्यंत सरल और सुबोध समाधान दिए हैं।

#1: जोगी, चेत नगर में रहो रे
#2: विस्मय है द्वार प्रभु का
#3: सतनाम तें लागी अंखियां
#4: मदहोश हमें तू कर दे
#5: बिन गुरु मारग कौन बतावै
#6: दूर जाना है मुझे
#7: गुरुमत अगम अगाध
#8: द्विज मनसिज, पंख खोल
#9: चंदरोज को जीवना
#10: बन गया हूं बांसुरी मैं

मनुष्य तो बांस का एक टुकड़ा है–बस, बांस का! बांस की एक पोली पोंगरी। प्रभु के ओंठों से लग जाए तो अभिप्राय का जन्म होता है, अर्थ का जन्म होता है, महिमा प्रकट होती है। संगीत छिपा पड़ा है बांस के टुकड़े में, मगर उसके जादुई स्पर्श के बिना प्रकट न होगा। पत्थर की मूर्ति भी पूजा से भरे हृदय के समक्ष सप्राण हो जाती है। प्रेम से भरी आंखें प्रकृति में ही परमात्मा का अनुभव कर लेती हैं। सारी बात परमात्मा से जुड़ने की है। उससे बिना जुड़े सब है और कुछ भी नहीं है। वीणा पड़ी रहेगी और छंद पैदा न होंगे। हृदय तो रहेगा, श्वास भी चलेगी, लेकिन प्रेम की रसधार न बहेगी। वृक्ष भी होंगे लेकिन फूल न खिलेंगे; जीवन में फल न आएंगे। परमात्मा से जुड़े बिना कोई परितृप्ति नहीं है। परमात्मा से जुड़े बिना लंबी-लंबी यात्रा है, बड़ी लंबी अथक यात्रा है; लेकिन मरुस्थल और मरुस्थल! मरूद्यानों का कोई पता नहीं चलता। आज हम एक अपूर्व संत दूलनदास के साथ तीर्थयात्रा पर निकलते हैं। दूलनदास अब केवल बांस के टुकड़े नहीं हैं, बांसुरी हो गए हैं। कृष्ण के स्वर उनके प्राणों को तरंगित कर रहे हैं। अब वे केवल सागर नहीं हैं। मंथन हो चुका, अमृत प्रकट हुआ है। कहां खारा सागर और कहां मंथन से प्रकट हुआ अमृत! दोनों में जोड़ भी नहीं बैठता। गणित और तर्क काम नहीं आते। अब उनकी वीणा मुर्दा नहीं है, आत्मवान हो उठी है।दूलनदास का वादन शुरू हो गया है। बांसुरी सप्राण हो उठी है। दूलनदास के हृदय में परमात्मा नाच रहा है। अगर उनकी दो-चार बूंदें भी तुम्हारे हृदय पर पड़ गईं तो तुम कुछ के कुछ हो जाओगे; फिर तुम वही न रहोगे जो थे। तुम्हारी दृष्टि बदलेगी और जब दृष्टि बदलती है तो सृष्टि बदल जाती है। तुम्हारे भीतर भी मोती पैदा हो सकते हैं। दूलनदास के स्वाति नक्षत्र में बरसती बूंदों को अपने हृदय तक पहुंचने दो। खोलो अपने हृदय की सीप को। सुनो ही मत, पीओ। क्योंकि ये बातें नहीं हैं जो सुन कर पूरी हो जाएं; ये जीवन को रूपांतरित करने के सूत्र हैं। ये क्रांति के सूत्र हैं। यह पारस का स्पर्श है; लोहा सोना हो सकता है। —ओशो

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